2,500 Year Old Method To Deal With Climate Change
2,500-Year-Old Method To Deal With Climate Change
बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पैलियोसाइंसेज के शोधकर्त्ताओं ने हाल ही में अध्ययन किया कि भारत के पास वडनगर में मानव बस्ती के इतिहास का उपयोग करके जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये 2,500 साल पुरानी पद्धति है।
अध्ययन में पुरातात्त्विक निष्कर्षों, पौधों के अवशेष और आइसोटोप सहित विभिन्न प्रकार के आँकड़ों की जाँच करके एक व्यापक दृष्टिकोण का उपयोग किया गया।
इसके अतिरिक्त उन्होंने अन्न और चारकोल पर आइसोटोप तथा रेडियोकार्बन का उपयोग करके डेटिंग विश्लेषण किया।
रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ
सहस्राब्दियों से जलवायु अनुकूलन:
गुजरात के अर्ध-शुष्क क्षेत्र में, वडनगर के ऐतिहासिक स्थल ने एक लचीली कृषि अर्थव्यवस्था का अनावरण किया है जो सदियों से मानसूनी वर्षा के असमान वितरण के बावजूद 2500 साल की अवधि में फली-फूली।
वडनगर में ऐतिहासिक मध्यकाल (800 ईस्वी-1300 ईस्वी) और उत्तर मध्यकालीन (लघु हिमयुग) अवधि के दौरान मानसून वर्षा के विभिन्न स्तर का अनुभव हुआ।
लचीली फसल अर्थव्यवस्था (Resilient Crop Economy):
मध्यकाल के बाद की अवधि (1300 ईस्वी -1900 ईस्वी) में मानसूनी बारिश में असमान वितरण के बावजूद छोटे दाने वाले अनाज विशेषकर बाजरा (C4 पौधे) पर आधारित एक लचीली फसल अर्थव्यवस्था देखी गई।
C4 पौधों का उपयोग लघु हिमयुग के दौरान ग्रीष्म मानसून के लंबे समय तक कमज़ोर रहने के प्रति इस वर्ग की अनुकूली प्रतिक्रिया को दर्शाता है।
C4 पौधे एक प्रकार के पौधे हैं जो एक विशिष्ट प्रकाश संश्लेषक मार्ग का उपयोग करते हैं जिसे C4 कार्बन स्थिरीकरण मार्ग के रूप में जाना जाता है। यह मार्ग गर्म और शुष्क वातावरण के साथ-साथ उन स्थितियों के लिये एक अनुकूलन है जहाँ फोटोरेस्पिरेशन की उच्च संभावना होती है।
खाद्य फसलों का विविधीकरण:
खाद्य फसलों और सामाजिक-आर्थिक प्रथाओं के विविधीकरण ने इन प्राचीन समाजों को असमान वर्षा तथा सूखे की अवधि से उत्पन्न चुनौतियों से निपटने की अनुमति दी।
इस अध्ययन का महत्त्व
यह ऐतिहासिक जलवायु पैटर्न और उन पर मानवीय प्रतिक्रियाओं को समझने के महत्त्व पर प्रकाश डालता है।
इससे पता चलता है कि पिछले अकाल और सामाजिक पतन न केवल जलवायु में गिरावट का परिणाम थे बल्कि संस्थागत कारकों से भी प्रभावित थे।
अध्ययन की अंतर्दृष्टि ऐतिहासिक जलवायु पैटर्न और मानव प्रतिक्रियाओं को समझने के महत्त्व पर ज़ोर देते हुए समकालीन जलवायु परिवर्तन अनुकूलन रणनीतियों को सूचित कर सकती है।
भारत की जलवायु परिवर्तन शमन पहल क्या हैं?
जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC):
इसे भारत में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का समाधान करने के लिये वर्ष 2008 में लॉन्च किया गया।
इसका उद्देश्य भारत के लिये निम्न-कार्बन और जलवायु-लचीला विकास प्राप्त करना है।
NAPCC के मूल में 8 राष्ट्रीय मिशन हैं जो जलवायु परिवर्तन में प्रमुख लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये बहु-आयामी, दीर्घकालिक और एकीकृत रणनीतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये हैं:
- राष्ट्रीय सौर मिशन
- संवर्द्धित ऊर्जा दक्षता पर राष्ट्रीय मिशन
- सतत् आवास पर राष्ट्रीय मिशन
- राष्ट्रीय जल मिशन
- नेशनल मिशन ऑन सस्टेनिंग हिमालयन ईकोसिस्टम
- हरित भारत के लिये राष्ट्रीय मिशन
- सतत् कृषि के लिये राष्ट्रीय मिशन
- जलवायु परिवर्तन के लिये रणनीतिक ज्ञान पर राष्ट्रीय मिशन
राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC):
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनने की भारत की प्रतिबद्धताएँ।
सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को वर्ष 2030 तक वर्ष 2005 के स्तर से 45% तक कम करने और वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से 50% बिजली उत्पन्न करने का संकल्प।
वर्ष 2070 तक अतिरिक्त कार्बन सिंक का निर्माण करने और शुद्ध शून्य उत्सर्जन हासिल करने का संकल्प।
जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय अनुकूलन कोष (NAFCC):
इसे विभिन्न क्षेत्रों में अनुकूलन परियोजनाओं को लागू करने के लिये राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान करने हेतु वर्ष 2015 में स्थापित किया गया।
जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्ययोजना (SAPCC):
यह सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को उनकी अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं तथा प्राथमिकताओं के आधार पर स्वयं के SAPCC तैयार करने के लिये प्रोत्साहित करता है।
SAPCC उप-राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिये रणनीतियों और कार्यों की रूपरेखा तैयार करती है।
यह NAPCC और NDCs के उद्देश्यों से संरेखित है।
Important-बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान (Birbal Sahni Institute of Palaeosciences)
स्थापना और दृष्टिकोण: पुरावनस्पति विज्ञान को एक विशिष्ट विज्ञान के रूप में स्थापित करने की दृष्टि से प्रोफेसर बीरबल साहनी द्वारा वर्ष 1946 में स्थापित किया गया। संस्थान का उद्देश्य पौधों के जीवन की उत्पत्ति और विकास, भूवैज्ञानिक चिंताओं तथा जीवाश्म ईंधन की खोज से संबंधित मुद्दों का समाधान करना है।
अनुसंधान के केंद्र बिंदु के क्षेत्र:
भूवैज्ञानिक समय के माध्यम से जैविक विकास।
प्री-कैम्ब्रियन जीवन का विविधीकरण।
गोंडवाना और सेनोज़ोइक वनस्पतियों की विविधता, वितरण, उत्पत्ति एवं विकास।
पौधों के जीवन को समझने के लिये फाइलोजेनेटिक ढाँचा।
गोंडवानन और सेनोज़ोइक समय-स्लाइस के दौरान अंतर तथा अंतर-बेसिनल सहसंबंध।
गोंडवाना कोयले और सेनोज़ोइक लिग्नाइट की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने के लिये जैविक पेट्रोलॉजी से संबधित अनुसंधान।
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